नाटक जश्न-ए-ईद का दिल्ली में प्रदर्शन
राजस्थान नेत्रहीन कल्याण संघ द्वारा संचालित राजस्थान नेत्रहीन माध्यमिक विद्यालय के विद्यार्थियों ने विगत 30 अक्टूबर 2015 को दिल्ली में नाटक जश्न-ए-ईद का भव्य प्रदर्शन किया। भारत सरकार के उपक्रम ‘सांस्कृतिक स्त्रोत एवं प्रशिक्षण केन्द्र’ (सी.सी.आर.टी.) द्वारा आयोजित श्रीमती कमला देवी स्मृति समारोह के अन्तर्गत इस नाटक का प्रदर्शन किया गया।
राष्ट्रपति पुरस्कार, केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित अध्यापकों के सांस्कृतिक अध्ययन एंव प्रशिक्षण के लिए आयोजित इस सम्मेलन में देशभर के चुनिंदा अध्यापक उपस्थित थे। यह नाटक प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचन्द की अमर कथा ईदगाह से अनुप्रेरित था, जिसमें संगीत और नृत्य का भावभीना समावेश था। बूढ़ी ग़रीब अमीना अपने इकलौते पोते हामिद की परवरिश के लिए पड़ोस के लोगों के कपड़ों की सिलाई का काम करती है। ग़रीबी की इन्तहा ये है कि रोटी बनाते वक्त अक्सर उसका हाथ जल जाता है क्योंकि उसके पास चिमटा तक नहीं है। हामिद अपनी दादी की जली हुई अंगुलियाँ देखकर फ़फ़क-फ़फ़क कर रो पड़ता है। ईद का त्यौहार आने वाला है और दादी ने बड़ी मुश्किल से आठ आने बचा कर रखे हैं। उसमें से ग्वालिन छह आने हामिद के दूध के पैसे वसूल करके ले जाती है। अमीना के पास केवल दो आने अर्थात् आठ पैसे बचे रहते हैं। उसमें से वह पाँच पैसे ईद के मौक़े पर सेवंइयाँ वगै़रा बनाने के लिए रख लेती है। ईदगाह गाँव से बहुत दूर है। वापिस आते-आते हामिद को भूख लग सकती है, इसलिए वह शेष तीन पैसे हामिद को मेला ख़र्ची के रूप में दे देती है।
हामिद के सभी दोस्त मेले में तरह-तरह की मिठाइयाँ, खेल-खिलौने ख़रीदते हैं, लेकिन हामिद कुछ नहीं ख़रीदता। मेले से लौटते समय एक लोहे की दुकान पर चिमटा देखकर उसे अपनी दादी की जली हुई अंगुलियों की याद आ जाती है और वह तीन पैसों से चिमटा ख़रीद लेता है। चिमटा देखकर हामिद के मित्र उसका मज़ाक उड़ाते हैं, लेकिन वह अपने तर्कों से सबको परास्त कर देता है। घर पहुँच कर वह अपनी दादी को चिमटा देता है, जिसे उसने तीन पैसों में ख़रीदा है। दादी पहले तो हामिद की बेसमझी पर उसे झिड़कती है कि वह भूखा-प्यासा रहा और चिमटा ख़रीद लाया; लेकिन हामिद के मन की यह बात जानकर कि चिमटे के अभाव में उसकी जली हुई अंगुलियाँ उसे याद आ गईं, इसलिए उसने चिमटा मोल ले लिया, उसका दिल हामिद के प्रति भावावेश से भर उठता है। दादी अपने पोते की भावना समझ कर फ़फ़क-फ़फ़क कर रोने लगती है और हामिद उसे चुप कराने की कोशिश करता है।
इस नाटक की कुछ अन्य विशेषताओं ने दर्शकों को अभिभूत कर दिया। सबसे बड़ी बात तो यह कि इन दृष्टिबाधित बच्चों को इतने श्रेष्ठ अभिनय का प्रशिक्षण कैसे दिया या कि वे सामान्य बच्चों से कहीं अधिक श्रेष्ठ अभिनय और नृत्य का प्रदर्शन कर सके। वस्तुतः
इसके लिए निर्देशकों ने ध्वनितत्वों को मूल आधार बनाया। ढ़ोलक की थापों, मंजीरों और अन्य वाद्यों की सहायता और ताली आदि की आवाज़ों के सहारे इन दृष्टिबाधित बच्चों को भाव-भंगिमा संचालित करने का प्रशिक्षण दिया गया। इसके कारण इन बच्चों के अभिनय में इतनी स्वाभाविकता और उन्मुक्तता आ गई कि प्रबुद्ध जन वाह-वाह कर उठे। नाटक के अन्त में सभागार में बैठे हुए समस्त दर्शकों ने खड़े होकर तालियाँ बजाई और इन बच्चों का हौसला बढ़ाया। सचमुच यह दुर्लभ प्रयोग अत्यन्त सफल रहा। इस नाटक का निर्देशन नाट्यकुलम के कुलगुरु भारत रत्न भार्गव और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के वरिष्ठ स्नातक अशोक बांठिया ने किया। नाटक के गीत भारत रत्न भार्गव ने लिखे हैं और उसे संगीतबद्ध सुखाड़िया विश्वविद्यालय के संगीत विभाग के पूर्व अध्यक्ष तथा गायक डॉ. प्रेम भंडारी ने किया है। सभी गीतों के स्वर भी डॉ. भंडारी के ही हैं।
नाटक की विभिन्न भूमिकाओं में रोहित प्रजापत, ललिता मीणा, अंजली साहू, लोकेन्द्र शेखावत, अंशुल कुमावत, भारती डांगी, आशा कुमावत, ज्योति शर्मा, निशा बैरवा, सिद्धार्थ शर्मा, जतिन सहाय, गणेश मीणा, लक्ष्मण सैनी तथा कमलेश मीणा ने भाग लिया।
नाटक की प्रकाश व्यवस्था सुनीता तिवारी नागपाल, ध्वनि प्रभाव सऊद नियाज़ी और मंच व्यवस्था विनोद शर्मा एवं सागर की थी। वेश विन्यास एवं संयोजन श्रीमती नीलू प्रेमचन्दानी का था और कुमारी प्रीति दुबे सहायक निर्देशक थीं।
नेपथ्य नियंत्रण राजस्थान नेत्रहीन कल्याण संघ के संयुक्त सचिव श्री जीतेन्द्र नाथ भार्गव ने श्री ओम प्रकाश के सहयोग से निभाया। इस नाटक की आशातीत सफलता से प्रेरित होकर यह निश्चय किया गया है कि संस्था की नाट्य गतिविधियों को निरन्तरता दी जाए और इसके साथ संगीत, नृत्य, चित्रकला, हस्तकला आदि में रूचि रखने वाले विद्यार्थियों को उचित प्रशिक्षण देकर उसमें उत्कृष्टता बनाए रखने का प्रयास किया जाए।